India vs China: भारत क्यों नहीं कर पाया चीन की तरह तरक्की, कहां आई दिक्कत?

India vs China: भारत और चीन दोनों तेजी से उभरती इकोनॉमी हैं, लेकिन चीन की तरक्की की रफ्तार भारत के मुकाबले काफी तेज रही। 1980 के दशक की बात करें, तो दोनों मुल्कों की अर्थव्यवस्था तकरीबन एक जैसी थी। मगर आज चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है, वहीं भारत अभी भी विकासशील देशों की कतार में हैं। आइए समझते हैं कि चीन ने क्या सही किया और भारत किन कारणों से पीछे रह गया।

आर्थिक सुधार में कौन रहा आगे?

चीन ने काफी जल्दी बदलीं नीतियां

चीन में आर्थिक सुधार काफी पहले शुरू हो गया था। इन सुधारों की नींव देंग शियाओपिंग (Deng Xiaoping) ने 1970 के दशक में रखी। वह माओ से-तुंग (Mao Zedong) के चीन की सत्ता पर काबिज हुए थे। देंग ने माओ की नीतिगत गलतियों को सुधारा और चीन की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने वाले उपाय किए।

1970 के दशक के अंत तक चीन के पास भारत की तुलना में ज्यादा स्किल वर्कफोर्स था। इससे विदेशी कारखानों को ऐसे वर्कर मिलने में आसानी हुई, जो कंपनियों की उम्मीद की मुातिबक कर सकें। इससे चीन न केवल विदेशी निवेश लुभाने हुआ, बल्कि बाद में चीनी श्रमिकों ने खुद अपनी फैक्टरियां लगानी शुरू कर दी।

देंग ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs) बनाए गए, जहां विदेशी निवेश को प्राथमिकता दी गई। उन्होंने मैन्युफैक्चरिंग हब बनने पर फोकस किया, जिससे चीन “दुनिया की फैक्ट्री” बन गया। सरकारी नियंत्रण का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाने के लिए किया गया। (स्रोत: विश्व बैंक, IMF रिपोर्ट 2023)

भारत आर्थिक सुधारों में रहा पीछे

भारत 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई आर्थिक उदारीकरण की तरफ बढ़ा। लेकिन, यह चीन से लगभग 13 साल बाद हुआ। हालांकि, भारत में सुधारों की रफ्तार काफी धीमी रही। कई क्षेत्रों में नौकरशाही और उसकी लेटलतीफी बड़ी अड़चन बनी रहीं।

भारत ने भूमि सुधार, श्रम कानून और विनिर्माण नीति में चीन जैसी आक्रामकता भी नहीं दिखाई। उद्यमशीलता और स्टार्टअप्स को भी कुछ हद तक ही बढ़ावा दिया गया। यही वजह है कि भारत आज भी सेवा क्षेत्र पर अधिक निर्भर है। (स्रोत: भारतीय रिजर्व बैंक, नीति आयोग)

इंडस्ट्री के मामले में चीन कैसे निकला आगे?

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का बेताज बादशाह चीन

चीन की GDP में निर्माण क्षेत्र का योगदान 28 फीसदी से अधिक है। वह इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल और भारी मशीनरी में ग्लोबल लीडर है। चीन की हुकूमत ने अपने सस्ते श्रम का बखूबी इस्तेमाल किया। इससे उत्पादन में भारी बढ़ोतरी और लागत भी कम रही। इससे चीन के उत्पाद पूरी दुनिया में छा गए।

अपनी मैन्युफैक्चरिंग क्रांति की बदौलत चीन ने रोजगार के अधिक अवसर पैदा किए। इससे गरीबी तेजी से कम हुई। साथ ही, आर्थिक विकास की रफ्तार काफी तेज हो गई। (स्रोत: चीन सांख्यिकी ब्यूरो, 2023)

भारत का निर्माण क्षेत्र रहा सुस्त

अगर भारत की GDP की बात करें, तो इसमें निर्माण क्षेत्र का योगदान सिर्फ 16 फीसदी है। मेक इन इंडिया जैसी योजनाएं शुरू तो हुई हैं, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में चीन के पूरा दबदबा बना लेने के बाद। मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं की रफ्तार भी काफी सुस्त है।

बिजली, परिवहन और लॉजिस्टिक्स की उच्च लागत से भारत के निर्माण उद्योग महंगा बना रखा है। इससे यह कभी वैश्विक स्तर पर चीन के मुकाबले के काबिल ही नहीं बन सका। भारत आज भी सर्विस सेक्टर (IT और BPO) पर निर्भर है। यह रोजगार तो देता है, लेकिन बड़े पैमाने पर होने वाले औद्योगीकरण से काफी कम।

जनसंख्या का किसने उठाया बेहतर फायदा?

चीन ने बड़ी जनसंख्या का इस्तेमाल कैसे किया?

श्रम शक्ति के बेहतर उपयोग के मामले में भी चीन ने बाजी मार माल ली। वहां कामकाजी उम्र के 74 फीसदी लोग वर्कफोर्स का हिस्सा हैं। चीन ने शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट पर काफी निवेश किया, जिससे उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिली।

चीन ने 1970 के दशक में “वन चाइल्ड पॉलिसी” लागू की। इससे जनसंख्या नियंत्रित रही और जनसंख्या विस्फोट से होने वाली परेशानियों से बचा रहा।

भारत में जनसंख्या और श्रम बाजार का हाल

भारत में कामकाजी जनसंख्या 2047 तक 1.1 बिलियन होगी। सरकार ने उस वक्त विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य रखा है।लेकिन रोजगार की कमी बड़ी समस्या बनी हुई है। भारत में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (LFPR) 52 फीसदी है, जबकि चीन में यह 76 फीसदी है।

महिलाओं की श्रम भागीदारी दर 22 ही है, जो चीन से बहुत कम है। भारत में कृषि क्षेत्र में अभी भी 43 फीसदी लोग काम करते हैं, जबकि चीन में यह सिर्फ 25 फीसदी है। भारत में कृषि क्षेत्र से ही सबसे अधिक रोजगार पैदा होता है, जहां मजदूरी सबसे कम मिलती है। (स्रोत: भारतीय वाणिज्य मंत्रालय, बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण)

इन्फ्रास्ट्रक्चर में किसने मारी बाजी?

चीन ने 1,40,000 किमी हाई-स्पीड रेल नेटवर्क बनाया। उसने बेहतर बंदरगाह, सड़कों और लॉजिस्टिक्स से व्यापार को बढ़ावा दिया। सस्ते और विश्वसनीय बिजली स्रोतों से निर्माण लागत घटाई। यहां तक कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसे महत्वाकांक्षी योजनाओं के जरिए दूसरे देशों में भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार किया।

वहीं, भारत की बात करें, तो यहां 15,000 किमी हाई-स्पीड रेल नेटवर्क है। लॉजिस्टिक्स लागत GDP का 14 फीसदी है, जबकि चीन में यह 8 फीसदी है। बिजली की कमी और महंगे टैरिफ से औद्योगिक लागत अधिक है।

विदेशी निवेश कहां अधिक आया?

चीन ने विदेशी कंपनियों को लुभाने के लिए सरल नीतियां बनाईं। FDI (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) का प्रवाह अधिक रहा, जिससे टेक्नोलॉजी और पूंजी मिली। मजबूत निर्यात नीति बनाई, जिससे व्यापार अधिशेष (Trade Surplus) बढ़ा। चीन का ज्यादातर देशों के व्यापार सरप्लस है। इसका मतलब है कि चीन आयात के मुकाबले निर्यात अधिक करता है, जिससे उसे ज्यादा फॉरेन करेंसी मिलती है।

दूसरी ओर, भारत में निवेश प्रक्रिया अभी भी पेचीदा और नौकरशाही बाधाओं से भरी हुई है। “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” में सुधार के बावजूद इंडस्ट्री शुरू करना चीन की तुलना में कठिन है। 2023 में भारत का FDI 49 बिलियन डॉलर रहा, जबकि चीन का 163 बिलियन डॉलर था।

शिक्षा और इनोवेशन पर किसका कितना फोकस?

चीन अपी GDP का 4 फीसदी एजुकेशन पर खर्च करता है। वह अपनी यूनिवर्सिटी में भी भारी फंडिंग करता है। वह दुनिया में सबसे अधिक STEM (Science, Technology, Engineering, Mathematics) ग्रेजुएट तैयार करता है। टेक्नोलॉजी और इनोवेशन के क्षेत्र में Alibaba, Tencent, Huawei और ByteDance जैसी कंपनियां उभरकर आईं।

वहीं, भारत GDP का सिर्फ 2.9 फीसदी शिक्षा पर खर्च होता है। हम इंजीनियरिंग और रिसर्च में भी बराबर पैसा नहीं लगाते। इससे टेक्नोलॉजी इनोवेशन कमजोर पड़ा। भारत में स्टार्टअप कल्चर जरूर बढ़ा है, लेकिन चीन के स्तर तक पहुंचने में काफी समय लगेगा। हालांकि, भारत में जोमैटो, स्विगी और फ्लिपकार्ट जैसे काफी सफल हो चुके हैं।

शासन व्यवस्था और सियासी स्थिरता का लाभ

यहां भी चीन को एक पार्टी प्रणाली का फायदा मिला, जहां नीतियां तेजी से लागू होती हैं। बेशक यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन चीन ने इसका भरपूर लाभ उठाया। उसने अपने कंट्रोल का फायदा उठाकर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया। साथ ही, सरकारी नीतियों को सख्त तरीके से लागू भी किया। उसके ज्यादातर फैसले दीर्घकालिक दृष्टिकोण लिए गए।

वहीं, भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली है। इससे नीतियों को लागू करने में कई बार बेवजह देरी होती है। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही से फैसला लेने की प्रक्रिया भी लंबे समय तक अटक जाती है। अलग-अलग सरकारों की नीति में स्थिरता की कमी रहती है। अगर 2014 से पहले की बात करें, तो लगातार तीन दशक गठबंधन की सरकार रही, जिसने कई सारे नीतिगत फैसलों को प्रभावित किया।

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Shubham Singh
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