Matrix Simulation Theory: क्या हम मायाजाल में जी रहे हैं? हैरान कर देगी सच्चाई

क्या हमारी दुनिया असली है या किसी डिजिटल सिमुलेशन का हिस्सा? इस सवाल पर ऑक्सफोर्ड प्रोफेसर निक बॉस्ट्रॉम की थ्योरी, एलन मस्क के बयान और MIT की रिसर्च ने बहस तेज कर दी है। सिमुलेशन थ्योरी कहती है कि हो सकता है हम एक विकसित सभ्यता द्वारा बनाए गए कम्प्यूटर प्रोग्राम का हिस्सा हों। फिलहाल सबूत नहीं हैं, लेकिन सोचने के लिए बहुत कुछ है।

Matrix Simulation Theory: 1999 में आई कीनू रीव्स (Keanu Reeves) की फिल्म ‘The Matrix’ ने दुनिया को एक अजीब सवाल दिया—क्या हमारी दुनिया असली है? या हम किसी कम्प्यूटर प्रोग्राम के अंदर जी रहे हैं? तब ये सिर्फ एक साइंस फिक्शन लगती थी, लेकिन आज दुनिया के बड़े वैज्ञानिक और टेक एंटरप्रेन्योर जैसे Elon Musk भी मानते हैं कि ऐसा मुमकिन है। ऐसे में हो सकता है कि आपका फोन, आपकी आंखें, आपकी सोच- ये सब सिर्फ कोड की लाइन हों, हकीकत नहीं।

तो क्या हम सब एक सॉफ्टवेयर में जी रहे हैं? या ये सिर्फ एक बौद्धिक कल्पना है। चलिए, सिमुलेशन थ्योरी की इस अनसुलझी पहेली को समझने की कोशिश करते हैं – विज्ञान, दर्शन और कल्पना की सीमाओं के पार जाकर।

 क्या हमारी पूरी दुनिया एक कंप्यूटर प्रोग्राम है?

सिमुलेशन थ्योरी का मूल विचार ये कहता है कि जो कुछ भी हम अपने आसपास महसूस करते हैं—जैसे चीज़ें देखना, सुनना, छूना, खाना, सोचना—वो सब कुछ असल में एक अत्याधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्राम का हिस्सा हो सकता है। यानी, हमारी पूरी वास्तविकता- धरती, अंतरिक्ष, भौतिकी के नियम, यहां तक कि आपकी यादें और भावनाएं- सब कुछ किसी डिजिटल सिस्टम का हिस्सा हो सकते हैं, जिसे किसी और, कहीं और, किसी और मकसद से डिजाइन किया गया है।

ये कुछ वैसा ही है जैसे हम आज वीडियो गेम्स में कैरेक्टर को कंट्रोल करते हैं। उस वर्चुअल दुनिया में कैरेक्टर को लगता है कि वही सच है, जबकि असली नियंत्रण तो गेमर के हाथ में होता है। इसी तरह, सिमुलेशन थ्योरी मानती है कि हम भी शायद किसी और की डिज़ाइन की गई रियलिटी में ‘कोडेड लाइफ’ जी रहे हैं।

ये सोच कैसे शुरू हुई कि हम असली नहीं हैं?

2003 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और फिलॉसफर निक बॉस्ट्रॉम (Nick Bostrom) ने थ्योरी दी कि अगर भविष्य में इंसान इतना ताकतवर बन जाए कि वो अपने पूर्वजों का इतिहास कंप्यूटर में दोबारा चला सके, तो मुमकिन है कि हम भी उसी तरह के सिमुलेशन में हों। उन्होंने कहा कि कोई भी अत्यंत विकसित सभ्यता अपने पूर्वजों की दुनिया को कंप्यूटर पर सिमुलेट कर सकती है।

MIT की प्रोफेसर जोरेह दावूदी (Zohreh Davoudi) और उनकी टीम ने एक बेहद दिलचस्प विचार पेश किया है: अगर हमारा ब्रह्मांड असली नहीं, बल्कि किसी सॉफ्टवेयर सिमुलेशन का हिस्सा है, तो इसकी कुछ झलक हमें खास किस्म के भौतिक संकेतों में मिल सकती है। उनकी रिसर्च ‘Constraints on the Universe as a Numerical Simulation’ टाइटल से arXiv पर 10 अक्टूबर 2012 को छपी थी।

Simulation Theory पर दिलचस्प तर्क

कंप्यूटर वैज्ञानिक और The Simulation Hypothesis के लेखक रिजवान विर्क (Rizwan Virk) ने निक बॉस्ट्रॉम के काम को आगे बढ़ाया है। उन्होंने बीबीसी से बातचीत में Simulation Theory के बारे में कुछ दिलचस्प दलीलें दीं।

विर्क का तर्क है कि अगर मल्टीवर्स का विचार सच है — यानी हर फैसला एक नई टाइमलाइन बनाता है — तो इससे यह संभावना मजबूत होती है कि रियलिटी डिजिटल है, न कि पूरी तरह भौतिक। वो कहते हैं, “प्रकृति में ऐसा कुछ नहीं होता जो पूरी की पूरी भौतिक चीज़ को एक साथ डुप्लिकेट कर दे, लेकिन जानकारी (information) को डुप्लिकेट करना और जरूरत के अनुसार उसे ‘render’ करना आसान है।”

अब मान लो कि ये सच है कि हम एक कंप्यूटर सिमुलेशन में जी रहे हैं, तो सवाल ये उठता है: उस दूसरी तरफ कौन है? विर्क कहते हैं, “कुछ लोग मानते हैं कि वो एलियंस हैं। लेकिन बॉस्ट्रॉम के मुताबिक, ये ‘Ancestor Simulations’ हो सकती हैं। यानी हमारे ही भविष्य के वर्ज़न हमारे पूर्वजों की दुनिया को सिमुलेट कर रहे हैं। कुछ वैसा जैसे हम आज रोमन साम्राज्य को सिमुलेट करें।”

Simulation Theory Timeline: विचार से विज्ञान तक

Matrix Simulation Theory

Elon Musk क्या कहते हैं?

Elon Musk का मानना है कि “chances that we are in base reality is one in billions” यानी कि हम जिस दुनिया में हैं, उसके असली होने के चांस बेहद कम हैं। वो कहते हैं कि वीडियो गेम्स 40 साल में इतना रियल हो गए हैं। 2D से अल्ट्रा-रियलिस्टिक 3D वर्ल्ड में बदल गए हैं, तो कल्पना करो कि हजारों साल बाद टेक्नोलॉजी क्या कर सकती है।

ऐसे में मुमकिन है कि हम भी किसी एडवांस्ड सिविलाइजेशन के बनाए सिमुलेशन का हिस्सा हों – न कि असली “बेस रियलिटी” में।

साइंटिस्ट क्या कहते हैं: ये विज्ञान है या वहम?

भौतिक विज्ञानी (Physicists) इसपर दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। कुछ कहते हैं कि हमारे यूनिवर्स के नियम-कानून इतने सटीक हैं कि ये ‘कोडेड’ सिस्टम जैसा लगता है। कुछ कहते हैं कि जब तक कोई ‘ग्लिच’ ना मिले, तब तक इसे साबित करना नामुमकिन है। कुछ वैज्ञानिक इसे एक “अनफॉल्सिफायबल थ्योरी” मानते हैं – यानी जिसे गलत साबित नहीं किया जा सकता।

ग्लिच इन द सिस्टम?
कई लोग ऐसे अनुभव बताते हैं जैसे- वक्त का धीमा हो जाना, देजा वू (Deja Vu), या किसी चीज का अचानक गायब हो जाना। कुछ इसे Simulation के ‘bugs’ मानते हैं। हालांकि वैज्ञानिक इसे मानसिक भ्रम या ब्रेन प्रोसेसिंग एरर मानते हैं।

अगर हम Simulation में हैं तो क्या?

अगर ये सच हुआ, तो सवाल उठेगा- क्या नैतिकता और स्वतंत्र इच्छा (free will) तब भी मायने रखती है? क्या हमारी हर सोच और हर फैसला पहले से प्रोग्राम किया हुआ है? और अगर कोई ‘क्रिएटर’ है, तो क्या वो भगवान है या कोई ह्यूमन? साथ ही सबसे बड़ा होगा कि कोई ऐसा सिमुलेशन क्यों चलाना चाहेगा?

कंप्यूटर वैज्ञानिक रिजवान विर्क (Rizwan Virk) इसका भी जवाब देते हैं। वह कहते हैं, “हम खुद सिमुलेशन क्यों चलाते हैं? अलग-अलग संभावनाओं का विश्लेषण करने के लिए। मसलन, न्यूक्लियर युद्ध या क्लाइमेट चेंज के नतीजे देखने के लिए हम सिमुलेशन चला सकते हैं। कई बार चला सकते हैं, ताकि सबसे संभावित परिणामों को समझा जा सके।”

Matrix वाली दुनिया हकीकत बन सकती है या नहीं, ये अभी भी एक सवाल ही है। लेकिन जैसे-जैसे AI, Quantum Computing और Neuroscience आगे बढ़ रहे हैं, ये थ्योरी और भी गंभीर होती जा रही है। तब तक, सवाल पूछना और सोचते रहना ही हमारी सबसे बड़ी आजादी है।
Shubham Singh
Shubham Singh
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