
Freebies Explainer: फ्रीबीज क्या है, कब और कैसे हुई इसकी शुरुआत; क्या हैं इसके फायदे और नुकसान?
Freebies Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (12 फरवरी 2025) को चुनावों में मुफ्त सुविधाओं का वादा देने वाले रेवड़ी कल्चर (Election Campaign Freebies) पर कड़ी टिप्पणी की। देश की सर्वोच्च अदालत ने सख्त लहजे में कहा, ‘जनता का एक बड़ा हिस्सा काम करने को तैयार नहीं, क्योंकि उसे मुफ्त राशन और पैसा मिल रहा है। उनसे काम लिया जाना चाहिए और उन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाना चाहिए। इसके बजाय हम फ्रीबीज देकर परजीवियों की जमात नहीं बना रहे हैं।’ सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से पता चलता है कि रेवड़ी कल्चर समाज के लिए कितना घातक साबित हो रहा है। आइए जानते हैं कि रेवड़ी कल्चर क्या है, इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई, इसके फायदे और नुकसान क्या हैं।
रेवड़ी कल्चर क्या है? (What are Freebies?)
‘गरीब की थाली में पुलाव आ गया, लगता है शहर में चुनाव आ गया’। ये पंक्तियां रेवड़ी कल्चर पर काफी सटीक बैठती हैं। अगर रेवड़ी कल्चर या फ्रीबीज को सरल शब्दों में समझे, तो यह ‘मुफ्त उपहार’ है, जिसे सरकार जनता के किसी खास हिस्से को देती है। अभी तक कानूनी ढांचे में रेवड़ी कल्चर या फ्रीबीज का कोई जिक्र नहीं है। बस सियासी दल एकदूसरे पर निशाना साधने के लिए रेवड़ी कल्चर जैसे शब्द का इस्तेमाल करते है। इसमें सियासी दल चुनाव प्रचार के दौरान जनता का वोट पाने के लिए लुभावने वादे करते हैं, जैसे कि:
- मुफ्त बिजली और पानी
- मुफ्त राशन और भोजन
- मुफ्त शिक्षा और छात्रवृत्ति
- मुफ्त गैस सिलेंडर
- बेरोजगारी भत्ता
- मुफ्त स्मार्टफोन और लैपटॉप
- किसानों के लिए कर्ज माफी
फ्रीबीज की शुरुआत कब और कैसे हुई?
भारत में फ्रीबीज की शुरुआत आजादी (1947) के समय से ही शुरू हो गई थी। उस वक्त आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और असमानता जैसी समस्याओं से जूझ रहा था। देश के नीति निर्माताओं का मानना था कि गरीब जनता की मदद के लिए मुफ्त कल्याणकारी योजनाओं की दरकार है। सरकार ने लोगों को राहत देने के लिए राशन प्रणाली (PDS), मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी योजनाएं शुरू कीं। हालांकि, इस दौर में अधिकतर कल्याणकारी योजनाओं का मकसद गरीबों की मदद करना था, न कि सियासी फायदा उठाना।
1980 और 1990 का दशक: राजनीति में फ्रीबीज
इस दौर में सियासी दलों ने चुनावों में फ्रीबीज को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। दक्षिण भारत में विशेष रूप से तमिलनाडु में एम. जी. रामचंद्रन (MGR) और बाद में जयललिता ने मुफ्त राशन, टीवी, साइकल, और गैस कनेक्शन जैसी योजनाएं शुरू कीं। अन्य राज्यों ने भी इसे अपनाया, जिससे फ्रीबीज कल्चर मजबूत होता गया।
2000 के बाद: फ्रीबीज की होड़
2000 के दशक में केंद्र और राज्यों में सियासी दल सत्ता में आने के लिए फ्रीबीज की बारिश करने लगे। किसानों की कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, लैपटॉप, स्मार्टफोन, और बेरोजगारी भत्ता जैसी योजनाएं जोर पकड़ने लगीं। यूपी, पंजाब, दिल्ली, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में विभिन्न दलों ने फ्री योजनाओं का वादा किया। केंद्र सरकार ने भी किसान कर्ज माफी, मुफ्त गैस सिलेंडर (उज्ज्वला योजना), और सीधी नकद सहायता (DBT) जैसी योजनाएं लागू कीं।
मौजूदा दौर (2015-2025) में फ्रीबीज कल्चर
अब तकरीबन हर चुनाव में राजनीतिक दल मुफ्त योजनाओं का एलान करते हैं। जो फ्रीबीज आजादी के बाद कल्याणकारी योजनाओं के रूप में शुरू हुई थी, वो अब विशुद्ध रूप से वोटबैंक की सियासत बन गई। सबसे हाल में दिल्ली विधानसभा चुनाव की बात करें, तो इसमें तीनों आम आदमी पार्टी, बीजेपी और कांग्रेस सभी ने मुफ्त सुविधाओं के वादे कर रखे थे। आइए कुछ प्रमुख राज्यों की फ्रीबीज के बारे में जान लेते हैं:
- दिल्ली: मुफ्त बिजली-पानी, महिलाओं के लिए बस यात्रा मुफ्त।
- पंजाब: युवाओं के लिए बेरोजगारी भत्ता।
- मध्य प्रदेश: लाड़ली बहना योजना।
- तमिलनाडु: मुफ्त गृहस्थी सामान, दवा और राशन किट।
फ्रीबीज पॉलिटिक्स के नुकसान
भारत में पिछले कुछ वर्षों के दौरान रेवड़ी कल्चर ने काफी जोर पकड़ा है। केंद्र और राज्य, दोनों जगह की सरकारें अलग-अलग योजनाओं के जरिए जनता को फ्रीबीज देने में लगी हुई हैं। आइए जानते हैं कि इसका असर क्या होता है:
‘निष्पक्ष’ चुनाव के लिए खतरनाक
राजनीतिक पार्टियां मुफ्त सुविधाओं का वादा कर जनता को लुभाती हैं। इससे मतदाता अक्सर योग्यता की बजाय मुफ्त सुविधा वाले फायदों के आधार पर वोट देते हैं।
सरकारी बजट पर असर
फ्रीबीज देने से सरकार पर आर्थिक दबाव बढ़ता है। कई राज्य सरकारें कर्ज में डूब जाती हैं, जिससे आर्थिक संकट गहरा जाता है। कुछ राज्यों के सामने तो सरकारी कर्मचारियों को सैलरी देने में भी दिक्कत होने लगती है। यहां तक कि किसानों की कर्ज माफी जैसी फ्रीबीज से बैंक भी संकट में आ जाते हैं। मार्च 2017 में भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की तत्कालीन चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य ने कर्जमाफी के फैसले पर कहा था, ‘आज लोन के पैसे वापस आ जाएंगे क्योंकि सरकार इसका भुगतान कर देगी। लेकिन जब हम फिर से लोन देंगे, तो किसान उसे वापस लौटने के बजाय अगले चुनाव का इंतजार करेंगे कि उनका कर्ज फिर से माफ हो जाएगा।
लोगों की मानसिकता पर प्रभाव
मशहूर संत मलूकदास का एक दोहा है, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काज, दास मलूका कह गए, सबके दाता राम‘। यह मुफ्त सुविधाओं का लोगों के दिमाग में पड़ने वाले असर को गंभीरता से दर्शाता है। फ्रीबीज पाने की आदत से लोग सरकार पर हद से ज्यादा निर्भर हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब हमें काम करने की जरूरत नहीं। सरकार मुफ्त राशन और पैसे दे रही है, उससे हमारा काम तो चल ही जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का भी यही कहना है कि फ्रीबीज कल्चर लोगों को परजीवी यानी दूसरों पर निर्भर बना रहा है।
असमानता, असंतुलन और भ्रष्टाचार
फ्रीबीज कल्चर से समाज में असमानता और असंतुलन बढ़ता है। इसे ऐसे समझिए कि किसी परिवार में चार भाई हैं। लेकिन, उनमें से सिर्फ एक कमा रहा है और बाकी तीन घर पर बैठे रहते हैं। तो इससे एक शख्स पर बाकी तीन लोगों का बोझ पड़ता है। उसे अधिक मेहनत करनी पड़ती है और बाकी तीन मौज करते हैं। साथ ही, फ्रीबीज योजनाओं को सही से लागू न करने पर भ्रष्टाचार की गुंजाइश भी बढ़ जाती है।
इकोनॉमी पर बुरा प्रभाव
फ्रीबीज कहने के लिए मुफ्त होती हैं, लेकिन उनका खर्च सरकार को अपने खजाने से भरना पड़ता है। साथ ही, अगर सरकारें केवल मुफ्त योजनाओं पर ध्यान देंगी, तो बुनियादी ढांचे, रोजगार और उद्योगों के विकास पर असर पड़ेगा। लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन का कहना है कि मनरेगा, डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर और जन धन खातों जैसी योजनाओं से श्रमिक जुटाने पर असर पड़ता है, क्योंकि लोग शहर आकर काम करने को राजी ही नहीं होते हैं।
फ्रीबीज पॉलिटिक्स के फायदे
बेशक फ्रीबीज पॉलिटिक्स के कई नुकसान हैं, लेकिन इसके कुछ फायदे भी हैं। आइए फायदों के बारे में भी जान लेते हैं:
गरीबों को राहत
मुफ्त राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं गरीब वर्ग के लिए मददगार होती हैं। इससे उनकी क्वालिटी ऑफ लाइफ में सुधार होता है।
शिक्षा और डिजिटल इंडिया को बढ़ावा
छात्रों को मुफ्त लैपटॉप और इंटरनेट जैसी सुविधाएं देने से डिजिटल इंडिया की दिशा में तरक्की होती है। छात्रों में जरूरी स्किल सीखने में भी मदद मिलती है।
सामाजिक समानता को बढ़ावा
महिलाओं और कमजोर वर्गों के लिए मुफ्त सुविधाएं देना उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास हो सकता है। बुजुर्गों को पेंशन उन्हें सम्मान से जीने में मदद करती है।
फ्रीबीज पॉलिटिक्स को कैसे संतुलित करें?
फ्रीबीज पॉलिटिक्स को पूरी तरह से रोकना मुमकिन नहीं है। खासकर, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो बिल्कुल नहीं। हालांकि, इसे संतुलित किया जा सकता है। इसके लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं।
- इस तरह का कानून बनाया जाना चाहिए, जिससे सिर्फ जरूरतमंद लोगों को ही फ्रीबीज मिले।
- सरकार को आर्थिक स्थिरता को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनानी चाहिए।
- लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए रोजगार और कौशल विकास योजनाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
- मुफ्त योजनाओं की जगह सब्सिडी आधारित योजनाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
सियासी पार्टियों के फ्रीबीज वादों पर कैसे लगेगी लगाम?
इस तरह का कानून बनना चाहिए कि सियासी दल चुनाव से पहले फ्रीबीज देने के वादे न कर सकें। अगर करें, तो उन्हें पूरा प्लान बताना होगा कि उस मुफ्त योजना के लिए पैसा कहां से आएगा। साथ ही, एक संवैधानिक संस्था भी बनाई जा सकती है, जो यह राजनीतिक पार्टियों के फ्रीबीज वादे से इकोनॉमी और बजट पर कितना बोझ बढ़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट चाहे, तो यह भी फैसला दे सकता है कि अगर कोई पार्टी फ्रीबीज देने का वादा करती है, तो वह उसे अपने पार्टी फंड से देगी, न कि सरकारी खजाने से। इस तरह के उपायों से फ्रीबीज की सियासत पर अंकुश लगाया जा सकता है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो रही है।
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